आज आज़ादी के 64 साल के बाद अपनी सूरते-हाल पर शर्मिंदा होने के अलावा हमारे पास कुछ भी नहीं है। देश की अधिकाँश जनता एक वक़्त की रोटी के लिए मोहताज़ है लेकिन लाखों टन अनाज गोदामों में सड़ रहा है।वो अनाज किस काम का जो भूखे का निवाला न बन सके, वो प्रशासन किस काम का जो रोटी होते हुए जनता को भूख से मरने के लिए मजबूर कर दे।और भूखा यदि रोटी की गुहार करे तो उसे गोली खिलाये, कभी आश्वासन की,तो कभी बन्दूक की।सत्ता आपके पास है, कानून आपके हाथ में है , आप जैसा चाहें उसे तोड़ें,मरोड़ें, मखौल उड़ायें, गरीब को, असहाय को उसकी नोक पर रख रोंदे।लाखों-करोड़ों के घोटालों को जांचने के लिए के लिए सरकार के न तो समय है न इच्छा-शक्ति, उनका तंत्र, कानून व बल का प्रयोग केवल विरोधियों को ठिकाने लगाने का कार्य ही कर सकता है।सर्व-विदित है कि बाबा रामदेव को सरकार ने अन्ना हजारे के विरुद्ध हथियार के रूप में इस्तेमाल के लिए तैयार करने की कोशिश की थी, उन्हें VVIP ट्रीटमेंट दिया गया लेकिन जब योजना कामयाब नहीं हुई तो रात को सोती निहत्थी जनता पर लाठियां बरसाई और फिर उनके सहयोगियों व उनके ट्रस्टों पर सीबीआई,इडी आदि की गहन जांच बैठाई।
बिलकुल कानून के तहत जांच होनी चाहिए, लेकिन आम जनता यह जानने का हक रखती है:
- कि ये सब तो पहले भी था और सरकार की मिली-भगत के बगैर क्या यह संभव था?
- क्यों न जनता यह निष्कर्ष निकाले कि इस देश में कोई भी गैर कानूनी कार्य तब तक कर सकता है जब तक वह सरकार का विरोध न करे या सरकार की हर हाँ में हाँ मिलाता रहे?
सरकार की नेक-नियति तब समझ में आती जब आन्दोलन के प्रमुख मुद्दे यानि देश के बाहर व देश के अन्दर जमा काले धन पर भी जांच उसी जोशो-खरोश से होती और कोई सार्थक नतीजे सामने आते बेशक उसमें रामदेव ही क्यों न फंसते लेकिन ऐसा लगता है कि जांच एजेंसियां (अगर वो वास्तव में कहीं जांच कर रही हैं तो ) तब अपनी रिपोर्ट नहीं देगी जब तक उन बैंको में जमा पैसा कहीं और स्थानांतरित नहीं हो जाता।
आज अन्ना सरकारी लोकपाल का विरोध कर रहें हैं ताकि भ्रष्टाचार पर अंकुश लग सके तो उन पर तरह-तरह से बंदिशें लगा कर अनशन करने के लिए हतोत्साहित किया जा रहा है। सरकार द्वारा भ्रष्ट करार दिया जा रहा है, कह रहें है कि वो भ्रष्टाचार में डूबे हुए हैं और उनको इस मुद्दे पर अनशन करने का कोई हक नहीं है, तो जनता यह भी जानना चाहती है कि पूरी तरह भ्रष्टाचार के भंवर में फंसी सरकार किस नैतिक आधार पर देश पर शासन कर रही है।
गोडसे ने गाँधीजी की हत्या की जिसे किसी भी दृष्टिकोण से जायज़ नहीं ठहराया जा सकता, लेकिन इन पिछले 63 सालों से उनके आदर्शों की हत्या यदि उस वर्ग द्वारा की जा रही हो जो रात-दिन उनकी धुहाई देता रहा हो, उसका क्या? देश के कर्णधारों व योजनाकारों के लिए गांधीजी का मूल-मंत्र था - जब भी कोई कानून बने या योजना बने तो सबसे निचले स्तर पर जी रहे नागरिक के हितों को देखते हुए बने और उसका लाभ उस तक पहुंचे भी लेकिन आज़ादी के 64 सालों के बावजूद भी यह गरीब-अमीर की खाई बढती ही जा रही है।सारा पैसा कुछ ही प्रतिशत लोगों के भीतर सिमट कर रह गया है।चंद सालों में कुछ लोग करोड़ों रूपये कमा लेते हैं लेकिन वो पैसा कैसे कमाया गया यह जानने की कोशिश कोई नहीं करता और कानून के दाव-पेंच लगा कर वे लोग मुक्त हो जाते हैं और सरकारें कैसे मूक दर्शक बनी देखती रहती हैं? क्या भ्रष्टाचार बिना सरकारी तंत्र के सहयोग के संभव है?यह कैसा गांधीवाद है?
रावलगाँव सिद्धि में रामराज्य का सपना साकार करने वाले, अपना सब कुछ त्याग कर, समाज सेवा में जुटे संत स्वरुप अन्ना को कलंकित करने की कोशिश कर रहे लोगों को क्या कहा जाय यह सोच कर खुद को ही शर्मिंदगी महसूस होती है। संवेदनहीनता की पराकाष्ठा है। कंप्यूटर साइंस व रोबोटिक्स में Artificial Intelligence पर अनुसन्धान कर रहे लोगों के लिए अच्छा विषय हो सकता है यदि वे दूसरी दिशा से रिसर्च शुरू करें यानि यह जानने की कोशिश करें कि मानव मष्तिष्क से जमीर (Conscience) व संवेदनशीलता ( Sensitivity) निकल जाए तो वो किस तरह व्यवहार करेंगे, हमारे यहाँ ऐसे लोगों की पूरी जमात है।
आज अन्ना को वो लोग मुखोटा बता रहें हैं जिनका अपना कोई चेहरा नहीं है। अन्ना आम आदमी के लिए कोई इंसान नहीं हैं, सदियों से गुलामी की ज़ंजीर में जकड़े, तथाकथित आज़ादी के बाद भी सरकार व उसके तंत्र की अकर्मण्यता व भ्रष्टाचार के पाटों के बीच फंसी निरीह जनता के पथराई आँखों व थमती साँसों के बीच खुशगवार जिन्दगी जीने के सपने की झलक हैं।
सरकार के वरिष्ट मंत्री कहतें है कि अन्ना संविधान की जानकारी नहीं रखते, मान लिया,लेकिन आप तो रखते हैं, आपने क्या किया? प्रतिभा का इस्तेमाल जन-मानस के उद्धार के लिए किया जाता है तो व्यक्ति देवता बन जाता है लेकिन उस प्रतिभा को क्या कहें जो भ्रष्टाचारियों के बचाव में खड़ी नज़र आती हो।हिंदी साहित्यकार पद्मभूषण विष्णु प्रभाकर जी ने कहा है -
चुके हुए लोगों से
खतरनाक हैं
बिके हुए लोग
वे
करते हैं व्यभिचार
अपनी ही प्रतिभा से !
इस संवेदनहीनता से आम आदमी आहत है।सरकार के भ्रष्टाचार से निपटने के ढुल-मुल रवैये से निचले स्तर की अफसरशाही व कर्मचारी भी अब बेखौफ हैं।पहले जब किसी अफसर या कर्मचारी को भ्रष्टाचार में लिप्त पकड़ लिया जाता था तो उसे थोड़ी-बहुत शर्मिंदगी महसूस होती थी लेकिन अब वे न केवल डंके की चोट पर भ्रष्टाचार करते हैं बल्कि ईमानदार कर्मचारियों का मजाक उड़ाया जाता है,उनको प्रताड़ित किया जाता है।क्यों कि वे अपने से ऊपर बैठे लोगों का अनुसरण करते हैं।सोचतें हैं जब उनका कुछ नहीं होता तो हमारा क्या होगा और यदि कुछ हुआ तो रिश्वत ली है तो देकर छूट भी जायेंगे और ऐसे लोग बहुतायत में हैं।आज शर्मिंदा वे लोग हैं जो बदकिस्मती से बेईमान नहीं बन सकते।
आम आदमी सुबह घर से निकल सड़क पर आता है और रूबरू होता है अनेक गड्डों से, यदि रोज़मर्रा के आने जाने की सड़क हो तो उसे अंदाज़ा होता है कि गड्डे कहाँ-कहाँ हो सकते हैं सो किसी तरह बच जाता है यदि चूक गया या रूट रोज़मर्रा का न हो तो या तो वो खुद चोट खायेगा या वहिकल। इससे कितना नुकसान होता है भुक्तभोगी जानतें हैं।लेकिन ठेकेदार-इन्जीनिअर-नेताओं की कारगुजारी व मिलीभगत जिसकी वजह से ये दुर्दशा होती है उसके लिए बस हम अपने को कोस कर रह जातें हैं।
और भ्रष्टाचार का ये कुचक्र निरंतर चलता रहता है अनेक रंगों में,अनेक रूपों में, अनेक वेशभूषाओं में, अनेक प्रकरणों में - 7 X 24 ।
40 वर्षों के बाद भी कवि दुष्यंत कुमार की पुकार जस की तस है -
हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए,
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।
आज यह दीवार,पर्दों की तरह हिलने लगी,
शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए।
हर सड़क पर, हर गली में,हर नगर,हर गाँव में,
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए ।
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,
हो कहीं भी, लेकिन आग जलनी चाहिए।
बिलकुल कानून के तहत जांच होनी चाहिए, लेकिन आम जनता यह जानने का हक रखती है:
- कि ये सब तो पहले भी था और सरकार की मिली-भगत के बगैर क्या यह संभव था?
- क्यों न जनता यह निष्कर्ष निकाले कि इस देश में कोई भी गैर कानूनी कार्य तब तक कर सकता है जब तक वह सरकार का विरोध न करे या सरकार की हर हाँ में हाँ मिलाता रहे?
सरकार की नेक-नियति तब समझ में आती जब आन्दोलन के प्रमुख मुद्दे यानि देश के बाहर व देश के अन्दर जमा काले धन पर भी जांच उसी जोशो-खरोश से होती और कोई सार्थक नतीजे सामने आते बेशक उसमें रामदेव ही क्यों न फंसते लेकिन ऐसा लगता है कि जांच एजेंसियां (अगर वो वास्तव में कहीं जांच कर रही हैं तो ) तब अपनी रिपोर्ट नहीं देगी जब तक उन बैंको में जमा पैसा कहीं और स्थानांतरित नहीं हो जाता।
आज अन्ना सरकारी लोकपाल का विरोध कर रहें हैं ताकि भ्रष्टाचार पर अंकुश लग सके तो उन पर तरह-तरह से बंदिशें लगा कर अनशन करने के लिए हतोत्साहित किया जा रहा है। सरकार द्वारा भ्रष्ट करार दिया जा रहा है, कह रहें है कि वो भ्रष्टाचार में डूबे हुए हैं और उनको इस मुद्दे पर अनशन करने का कोई हक नहीं है, तो जनता यह भी जानना चाहती है कि पूरी तरह भ्रष्टाचार के भंवर में फंसी सरकार किस नैतिक आधार पर देश पर शासन कर रही है।
गोडसे ने गाँधीजी की हत्या की जिसे किसी भी दृष्टिकोण से जायज़ नहीं ठहराया जा सकता, लेकिन इन पिछले 63 सालों से उनके आदर्शों की हत्या यदि उस वर्ग द्वारा की जा रही हो जो रात-दिन उनकी धुहाई देता रहा हो, उसका क्या? देश के कर्णधारों व योजनाकारों के लिए गांधीजी का मूल-मंत्र था - जब भी कोई कानून बने या योजना बने तो सबसे निचले स्तर पर जी रहे नागरिक के हितों को देखते हुए बने और उसका लाभ उस तक पहुंचे भी लेकिन आज़ादी के 64 सालों के बावजूद भी यह गरीब-अमीर की खाई बढती ही जा रही है।सारा पैसा कुछ ही प्रतिशत लोगों के भीतर सिमट कर रह गया है।चंद सालों में कुछ लोग करोड़ों रूपये कमा लेते हैं लेकिन वो पैसा कैसे कमाया गया यह जानने की कोशिश कोई नहीं करता और कानून के दाव-पेंच लगा कर वे लोग मुक्त हो जाते हैं और सरकारें कैसे मूक दर्शक बनी देखती रहती हैं? क्या भ्रष्टाचार बिना सरकारी तंत्र के सहयोग के संभव है?यह कैसा गांधीवाद है?
रावलगाँव सिद्धि में रामराज्य का सपना साकार करने वाले, अपना सब कुछ त्याग कर, समाज सेवा में जुटे संत स्वरुप अन्ना को कलंकित करने की कोशिश कर रहे लोगों को क्या कहा जाय यह सोच कर खुद को ही शर्मिंदगी महसूस होती है। संवेदनहीनता की पराकाष्ठा है। कंप्यूटर साइंस व रोबोटिक्स में Artificial Intelligence पर अनुसन्धान कर रहे लोगों के लिए अच्छा विषय हो सकता है यदि वे दूसरी दिशा से रिसर्च शुरू करें यानि यह जानने की कोशिश करें कि मानव मष्तिष्क से जमीर (Conscience) व संवेदनशीलता ( Sensitivity) निकल जाए तो वो किस तरह व्यवहार करेंगे, हमारे यहाँ ऐसे लोगों की पूरी जमात है।
आज अन्ना को वो लोग मुखोटा बता रहें हैं जिनका अपना कोई चेहरा नहीं है। अन्ना आम आदमी के लिए कोई इंसान नहीं हैं, सदियों से गुलामी की ज़ंजीर में जकड़े, तथाकथित आज़ादी के बाद भी सरकार व उसके तंत्र की अकर्मण्यता व भ्रष्टाचार के पाटों के बीच फंसी निरीह जनता के पथराई आँखों व थमती साँसों के बीच खुशगवार जिन्दगी जीने के सपने की झलक हैं।
सरकार के वरिष्ट मंत्री कहतें है कि अन्ना संविधान की जानकारी नहीं रखते, मान लिया,लेकिन आप तो रखते हैं, आपने क्या किया? प्रतिभा का इस्तेमाल जन-मानस के उद्धार के लिए किया जाता है तो व्यक्ति देवता बन जाता है लेकिन उस प्रतिभा को क्या कहें जो भ्रष्टाचारियों के बचाव में खड़ी नज़र आती हो।हिंदी साहित्यकार पद्मभूषण विष्णु प्रभाकर जी ने कहा है -
चुके हुए लोगों से
खतरनाक हैं
बिके हुए लोग
वे
करते हैं व्यभिचार
अपनी ही प्रतिभा से !
इस संवेदनहीनता से आम आदमी आहत है।सरकार के भ्रष्टाचार से निपटने के ढुल-मुल रवैये से निचले स्तर की अफसरशाही व कर्मचारी भी अब बेखौफ हैं।पहले जब किसी अफसर या कर्मचारी को भ्रष्टाचार में लिप्त पकड़ लिया जाता था तो उसे थोड़ी-बहुत शर्मिंदगी महसूस होती थी लेकिन अब वे न केवल डंके की चोट पर भ्रष्टाचार करते हैं बल्कि ईमानदार कर्मचारियों का मजाक उड़ाया जाता है,उनको प्रताड़ित किया जाता है।क्यों कि वे अपने से ऊपर बैठे लोगों का अनुसरण करते हैं।सोचतें हैं जब उनका कुछ नहीं होता तो हमारा क्या होगा और यदि कुछ हुआ तो रिश्वत ली है तो देकर छूट भी जायेंगे और ऐसे लोग बहुतायत में हैं।आज शर्मिंदा वे लोग हैं जो बदकिस्मती से बेईमान नहीं बन सकते।
आम आदमी सुबह घर से निकल सड़क पर आता है और रूबरू होता है अनेक गड्डों से, यदि रोज़मर्रा के आने जाने की सड़क हो तो उसे अंदाज़ा होता है कि गड्डे कहाँ-कहाँ हो सकते हैं सो किसी तरह बच जाता है यदि चूक गया या रूट रोज़मर्रा का न हो तो या तो वो खुद चोट खायेगा या वहिकल। इससे कितना नुकसान होता है भुक्तभोगी जानतें हैं।लेकिन ठेकेदार-इन्जीनिअर-नेताओं की कारगुजारी व मिलीभगत जिसकी वजह से ये दुर्दशा होती है उसके लिए बस हम अपने को कोस कर रह जातें हैं।
और भ्रष्टाचार का ये कुचक्र निरंतर चलता रहता है अनेक रंगों में,अनेक रूपों में, अनेक वेशभूषाओं में, अनेक प्रकरणों में - 7 X 24 ।
40 वर्षों के बाद भी कवि दुष्यंत कुमार की पुकार जस की तस है -
हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए,
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।
आज यह दीवार,पर्दों की तरह हिलने लगी,
शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए।
हर सड़क पर, हर गली में,हर नगर,हर गाँव में,
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए ।
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,
हो कहीं भी, लेकिन आग जलनी चाहिए।