शनिवार, जुलाई 30, 2011

मरती है मृत्यु ही बार-बार

मृत्यु -पथ पर जाते हुए
पूछ लिया मैंने स्वयं मृत्यु से
तुम नहीं मरती क्या कभी?
चौंकी नहीं वह, हँस आई ...
फिर आह भर कर बोली -
भोले प्राणी, वह मैं ही तो हूँ जो
मरती हूँ बार-बार
मुक्त करने को तुम्हें
मृत्यु-लोक के छल-प्रपंचों से
कथनी-करनी के अंतर से
जो नहीं हो, वही दीखने के जघन्य पाप से
जिसे मानते हो विधाता, उसी को बंद कर देते हो
मंत्रो में, आयतों में
काँकर-पाथर के पूजाघरों में
और ठगने के गुनाह से बच जाते हो उसी को
जो तुम्हारा सबसे अपना है

तुम करते हो घोषणा बार-बार
दर्द भरे शब्दों में
शराब, सिगरेट, जुआ, लाटरी
सब घातक हैं
तन के लिए, मन के लिए और धन के लिए
त्याग दो, त्याग दो उन्हें इसी क्षण
और
फिर खोलते हो मदिरालय
छपवाते हो सुनहरी इश्तिहार
जिनमें पिलाती हैं रमणियाँ
सुगन्धित सिगरेट - प्रेमियों को
दे देते हो अनुमति
चलाने को नाना-रूप लाटरियाँ
बनाने को सबको निर्धन, निर्भर
अर्थ बदल दियें हैं तुमने !
कर दिया है महिमा-मंडित
गुंडों, बदमाशों और विश्वासघातियों को
इन सब जघन्य पापों से बचाती हूँ
मैं ही तुम्हें बार-बार
और मरती हूँ निरंतर स्वयं
तुम्हारे विश्वासघातों की
शिलाएँ धरकर
अपनी छाती पर ।

                      -विष्णु प्रभाकर (दिसंबर १९९४)

काव्य-संकलन "चलता चला जाऊँगा" के प्राक्कथन में विष्णु जी के सुपुत्र अतुल जी ने उनकी डायरी का उल्लेख किया है जिसमें विष्णु जी ने लिखा है, "जब कुछ नहीं आता था तो कुछ करने के लिए कविताएँ लिखीं, जब सब कुछ करके देख लिया तो कविताएँ लिखीं।कविताएँ क्या पलायन हैं या थके मन के लिए टानिक ।"

मेरे लिए ये यथार्थ का आइना दर्शाती उस नश्तर की तरह हैं जो चुभन के साथ मन-मष्तिष्क में घर कर गए रोगों के लिए प्रतिरक्षण का कार्य करता है।  

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