शुक्रवार, अगस्त 12, 2011

चलो बस चलो


अपने को शर्मिंदा करके कहाँ चले हो,
आओ घर के भीतर बैठें होकर शर्मिंदा।
आज इनको सपने दिखा लुभा रहे हो,
कल किश्तें मांग-मांग कर करोगे शर्मिंदा।
बिस्तर पर पड़े-पड़े हम हैं शर्मिंदा,
लोन चुकाने के चक्कर में हो गए बीमार।
उसे क्या जलाओगे जो जलकर राख हुआ,
तो फिर तुम अपने हाथ उसी राख से मलोगे
आओ जिस-जिसको भूख सताती है,
यहाँ लोन देने का बड़ा बाज़ार सजा।
हड़ताल पर क्यूँ बैठे हो,
सरकार दे रही है लोन खुला।
आज लोन है खुला बंट रहा,
कल किश्तों में कर देंगे अदा।
काल को हमने बस में है कर लिया
कल जियेंगे और कमाएंगे,
इतना है हमें पता।
चलिए जो होगा देखा जाएगा,
अब कहाँ बची है शक्ति भुझते हुए चिरागों में।
तन जलता है मन जलता है
उत्तर-दक्षिण पूरब-पश्चिम,
आग में सुलगता है।
चले चलो,चले चलो जब तक जीवन है,
जान है तो जहान है फिर तो श्मशान है।
यह मेरा गणतंत्र-जनतंत्र महान है,
आओ सूर्य की नई किरण आओ।
स्वागत है,
तुम तो ऊपर अभी नहीं चढ़ रहीं,
आओ धरा पर पड़ी राख को,
दे सको तो दे दो,
फिर से जीवन नया।
क्या कोई यहाँ पर है,
क्या कोई हमारी सुन रहा,
चारदीवारी में बंधे-बंधे
बिस्तर पर पड़े-पड़े,
तन जल रहा मन जल रहा
आओ भाई आओ भाई,
इसी राह पर अब तो है चलना।
चलो बेटा चलो,
माँ का हाथ पकड़ कर चलो,
हँसते-हँसते चलो,
चलते-चलते चलो,
बाहर रोशनी में चलो,
हम भी रोशनी में चलें,
तुम भी रोशनी में चलो।
उठो खड़े होओ,
बस चलो। 

  - विष्णु प्रभाकर   (१५.०३.२००९)

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